बदलाव और रफ्तार में गुम होते ठहराव की कहानी है ‘कंट्रोल ए+डिलीट’

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तहसीन मुनव्वर की कहानी ‘कंट्रोल ए+डिलीट’ मूल रूप से उर्दू में लिखी गई थी. बाद में इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. यह एक पीढ़ी के सामने बदलते समय और बढ़ती रफ्तार की चुनौती की कहानी है. कहानी का पात्र एक कहानीकार है जो कागज-कलम से अपने विचारों को शब्द में उतारकर कहानी रचता है. लेकिन समय करवट बदलता है, कागज-कलम तकनीक में तब्दील होकर कम्यूटर के की-बोर्ड में बदल जाती है. की-बोर्ड से जूझते शब्द और कहानी के पात्रों में उलझे ताने-बाने को लेकर यह बड़ी ही रोचक कहानी है. आपकी भी इसका आनंद लें-

आज मुद्दत बाद वो कहानी लिखने को फिर तैयार हो ही गया. ऐसा नहीं था कि उस के आस-पास कहानियां नहीं थीं या कहानियों के चरित्र उस से रूठ कर किसी और रचनाकार के कदमों में जाकर बैठ गए थे. उस की कहानियां और उस के किरदार उस के इलावा किसी और के पास जा ही नहीं सकते थे. हां, कई बार ऐसा हुआ कि कई कहानियां आकर उस से मिलीं. उन से उस की लंबी चौड़ी बातचीत भी हुई. उस को कहानियों ने अपने प्लाट का पूरा नक़्शा सौंप दिया. इस उम्मीद में प्लाट खाली पड़ा रहा कि अब वो अपनी कलम से उस में शब्दों की खेती करेगा. जिसमें एक-एक बिंदु बीज की तरह नजर आएगा. कई चरित्र तो इसे उम्मीद में दौड़े-दौड़े आ भी गए कि अब उनका पुनर्जन्म होने वाला है. वो किरदार भी जिनकी उस प्लाट में कोई खास जरूरत नहीं थी अपनी जिंदगी की उम्मीद में उस से मिलने के लिए आने-जाने लगे. मगर चाहे उस के पाठक इसे मानें या न मानें मगर उस के किरदार जानते थे कि एक बार अगर उसने उन्हें कहानी का हिस्सा बना लिया और उनके होंटों से एक भी संवाद अदा करवा लिया तो वो सदा के लिए अमर हो जाएंगे. कुछ किरदार मरने के लिए पैदा होते हैं मगर कुछ किरदार ज़िन्दा ही इस लिए किए जाते हैं कि वो हमेशा के लिए जिंदगी पा जाएं. मगर कहानियों और किरदारों का ये आना-जाना किसी काम नहीं आया. उसने सभी प्लाट यूं ही खाली छोड़ दिए.

अक्सर उस को महसूस होता कि कुछ रचनाकारों ने उस के प्लॉट पर गैरकानूनी कब्जा कर लिया है मगर फिर इस ख़्याल को उसने दिल से निकाल कर फेंक दिया क्योंकि वो जानता था कि कल्पना की घाटी में विचार तो हर समय उड़ान भरते रहते हैं. उन्हें जो चाहे अपना ले. ऐसे में अपने प्लॉट को खाली छोड़ना तो उस की ही भूल थी. मुम्किन है कि इसीलिए कुछ प्लाटों पर दूसरे रचनाकारों का कब्जा हो गया हो. उस के कुछ किरदार तो अक्सर उस से शिकायत भी करते रहते कि काश तुमने इस प्लॉट को ऐसे खाली ना छोड़ा होता तो शायद हम तुम्हारी ही कलम से अमर हो जाते. अब जहां हैं वहां हमारी कोई चर्चा ही नहीं है. वो इस पर खामोश रह जाता. वो क्या जवाब देता. उसने कलम एक मुद्दत हुई कलम कर दिया था.

ये फैसला उसने मजबूरी में लिया था. दरअसल ज़माना तरक्की कर गया था. अब कलम की जगह की-बोर्ड ने ले ली थी. उसने शुरू में तो इस से बचना चाहा मगर जब उस के लिखे को कोई कम्पयूटर पर टाइप करता और वो किसी पत्रिका में छप कर उस के सामने आता तो उस के हाथ-पांव फूल जाते क्योंकि उसमें इतनी गलतियां होतीं कि हे भगवन..!

फिर यूं हुआ कि केवल इस कारण कि वो कागज पर लिखता था उसकी कहानियां प्रकाशित होना कम हो गईं. बहुत से नए रचनाकार सीधे कम्पयूटर से टाइप कर के कहानियां भेजने लगे थे. प्रकाशकों को ये आसान लगा. उन्होंने इन कहानीकारों का कूड़ा छापना शुरू कर दिया. उसके जैसे किरदारों से इन्साफ करने वाले लोग कहानियों की दुनिया से दूर होने लगे. उसने इस दौड़ में शामिल होने के लिए कलम छोड़ दी और की-बोर्ड पर बैठने लगा. मगर की-बोर्ड की रफ़्तार उसकी कल्पना की उड़ान से मुकाबला नहीं कर पाती थी. उसने एक बार किसी को की-बोर्ड सौंपा और ख़ुद टहल-टहल कर कहानी बोलने लगा. लेकिन जब की-बोर्ड को काबू में करने वाला इन्सान उससे बार-बार पूछता कि क्या बोला तो उसकी बोलती ही बंद हो जाती. उसने फिर चाहा कि हाथ से लिखे और किसी दूसरे से की-बोर्ड पर लिखवा ले मगर ये दो-दो बार की मेहनत उसे बेकार-सी लगी.

उसने जिंदगी में कभी हार नहीं मानी थी. इसलिए उसने खुद ही की-बोर्ड को अपने काबू में किया और कहानियों को ढूंढ-ढूंढ कर लाने लगा. मगर जब वो की-बोर्ड पर बैठता तो कहानी ज्यादा देर तक उस का साथ नहीं दे पाती. उस का पूरा रचनात्मक सिलसिला ही गड़बड़ा चुका था. उसने कहानी को ही गड़बड़ाने का फैसला किया और ऐसी कहानियां लिखने लगा जो चार-पांच लाइन से आगे नहीं बढ़ पाती थीं. उसने उनका नाम लघु कथा दे दिया. जबकि अपने दिल में वो जानता था कि ये अधिकतर कहानियां दो चरित्रों के बीच मामूली संवाद से आगे की बात नहीं हैं मगर जब तक कदम लम्बी यात्रा लायक न हो जाएं उसे छोटे-छोटे कदम तो उठाने ही थे. जब उसकी लघु कहानियों की भी दाल नहीं गली तो फिर उसने एक नई गली खोज निकाली और अपनी कहानियों को स्वतंत्र कविता की सवारी कराने की सोची. यहां भी उसको मुंह की खानी पड़ी. वो ये नहीं समझ सका कि उस की रचनात्मक यात्रा में जो रात घिर आई है उस का कारण केवल इतना-सा है कि नई तकनीक के अंधेरों ने उस के कलम की स्याही पी ली है. उसे अब सिर्फ कलर प्रिंटर से ही दूर किया जा सकता है. इसके लिए उसे अपनी सोच से ले कर काम काज में भी बड़ा परिवर्तन लाना पड़ेगा तब ही वो अब कभी कोई कहानी या दूसरे रचनात्मक सिलसिले से हो कर गुजर पाएगा.

आखिर देर से ही सही मगर उसने ये सफर तय कर ही लिया. धीरे-धीरे उसकी की-बोर्ड पर टाइप करने की रफ़्तार भी बढ़ गई थी. अब उसे ढूंढ-ढूंढ कर टाइप नहीं करना पड़ता था. वो फर्राटे के साथ लिखने यानी कि टाइप करने लगा था. उसने भाषाओं को प्रोत्साहन देने वाले और कम्पयूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले संस्थानों का आभार व्यक्त किया और अपना सर्टिफिकेट अपने ही हवाले कर दिया. आज से उसने खुद को नौकरी पर रख लिया था. आज उसकी खुद की नौकरी का पहला दिन था. अब वो अपने नए कम्पयूटर पर बैठा की-बोर्ड को मुस्कुरा कर देख रहा था. उसने कम्पयूटर के माऊस की दुम दबाई और ऊपर वाले का नाम लेकर कहानी लिखना शुरू कर दिया.

सबसे पहले उसने बड़े-बड़े फॉन्ट के साथ कहानी का नाम लिखा. ऐसा पहली बार हुआ था कि कहानी लिखने से पहले उसने कहानी का नाम लिखा हो. पहले तो वो कहानी लिखने के बाद शीर्षक के लिए दर-दर भटकता रहता था. यार दोस्तों से चर्चा करता था. एक शीर्षक पसंद करता था फिर उसे कई दिन के बाद रद्द कर देता था. उसके पास पत्रिकाओं से फोन और खत आते रहते जिसमें उस से निवेदन किया जाता था कि वो अपनी ताज़ा कहानी जो कई लोगों को सुना चुका है सबसे पहले उनकी पत्रिका को ही दे. कई बार तो कहानी सिर्फ शीर्षक की वजह से ही मुद्दतों झूलती रहती. लेकिन इस बार उसने कहानी लिखने से पहले कहानी का शीर्षक लिखा था. ये बताता था कि उस के अंदर नई सोच के साथ नए अंदाज में कदम बढ़ाने की शक्ति पैदा हो चुकी है.

लिखने के बाद उसने गौर से शीर्षक को देखा. जिंदगी आ रहा हूं मैं..! उस के मुंह से खुद ही अचानक निकला, वाह.. ये है कहानी..! मगर कहानी है कहां? उसने खुद से सवाल किया. मगर वो घबराया नहीं. कहानी का नाम हो गया है तो कहानी भी हो ही जाएगी. उसके सामने आज का अखबार पड़ा था. उसने सुर्खियों पर नजर दौड़ाई. “बे-मौसम बरसात से किसानों में हाहाकार कई किसानों की ख़ुदकुशी”. कहानी है किया? उसने खुद से सवाल किया.

कब तक प्रेमचंद के आस-पास भटकते रहोंगे. बाहर निकलो दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है. कल कहानी कलम से लिखी जाती थी आज की-बोर्ड पर दोनों हाथों की उंगलियां नृत्य करती हैं तब कहीं जाकर अध्यात्म का पर्दा हटता है. तुम अभी तक किसानों में ही उलझे हो. देखो किसानों के खेतों पर कितने आलीशान महल बन चुके हैं. कितने जबरदस्त माल कड़ी हो गए हैं जहां इश्क़ क्रेडिट कार्ड से हुस्न की फर्माइश पर छोटे-छोटे वस्त्र खरीद रहा है और तुम अभी तक प्रेमचंद के कफ़न में उलझे हो. बाहर निकलो. खबरदार जो तुमने कृष्णचंद्र या ख़्वाजा अहमद अब्बास की तरफ देखा भी तो. कहानियां अब इंतिज़ार हुसैन का प्रवास भी नहीं हैं क्योंकि अब प्रवास मजबूरी नहीं बल्कि आर्थिक योजना का हिस्सा है.

ये सोच-सोच कर वो कहानी का शीर्षक देखता और कहानी का प्लॉट तलाश करने लगता. ज़िंदगी आ रहा हूं मैं..! कोई आ रहा है जो ऐलान कर रहा है कि कुछ अच्छा होने वाला है. क्या ये अच्छे दिन की भविष्यवाणी वाली कहानी हो सकती है. उसने सोचा. कुछ ज़्यादा राजनितिक नहीं हो जायेगा मुआमला. उसने खुद से ही सवाल किया और खुद को जवाब भी दे दिया. चलो शुरूआत ऐसे करते हैं कि पहले प्लाट ढूंडते हैं. उसने खुद से कहा. प्लॉट शहरी हो या ग्रामीण. शहरी प्लॉट आसानी से बिक जाता है. उसमें रंगीनी होगी. ग्रामीण प्लॉट के प्रेमचंद से टकरा जाने की उम्मीद ज़्यादा है. कहीं न कहीं दो बीघा जमीन-सा मुआमला होने लगेगा. इसलिए इस से बचना चाहिए. मगर शहरों में प्लॉट हैं कहां? जो हैं वो बहुत कीमती हैं. पागल, उसने खुद को समझाया, अपनी मिडल क्लास सोच से बाहर निकलो. बात कहानी के प्लॉट की हो रही है. तुम बिल्डर के सताए एक घर का सपना रखने वालों की तरह पगलाने मत लगो. ठीक है, तो तय हुआ कि कहानी का प्लॉट शहर का होगा. और किरदार? किरदार भी शहरी ही होंगे. गांव से अम्मां-बाऊजी तो आ सकते हैं उस प्लॉट में? अरे उनको मत लाओ यार वो फिर दो बैलों की जोड़ी और छोरा गंगा किनारे वाला से बाहर नहीं निकलेंगे. या तो अम्मां-बाऊजी को मार दो या फिर उनका एक आध बार फोन आ जाएं. हेलो, सुनते ही कहानी का हीरो उनसे कह देगा कि बाऊजी बाद में बात करते हैं मीटिंग में हूं या गाड़ी चला रहा हूं. दूसरी ओर की बात सुने बिना? हां, दूसरी ओर की बात आजकल कौन सुनता है. सब एक ही ओर की तो कहते-सुनते हैं. अपनी ओर की. ठीक है. कहानी आगे बढ़ाएं? अड़ोसी-पड़ोसी? हां, हो सकते हैं. मगर दूर से ही सलाम करने वाले. मैं नहीं चाहता कि मेरा हीरो कहीं ज़्यादा उलझे. बहुत दिनों के बाद कहानी आयाम ले पा रही है. मैं किसी प्रकार का बेकार-सा एजेंडा नहीं रखना चाहता. ठीक तो फिर उनका पड़ोसी है, पंजाबी है. क्यों? बंगाली क्यों नहीं है. मुहल्ला पंजाबियों का है न. तो क्या पंजाबी मुहल्ले में बंगाली नहीं रह सकते? अरे यार बंगालियों को चितरंजन पार्क में रहने दो. ये प्लॉट पंजाबी बाग का है. फिर ठीक है. मेट्रो जाती है. हां जाती है. तो फिर मेट्रो से हीरो जाता है. लेकिन बाऊजी का फ़ोन आएगा तो उसका ये कहना कि गाड़ी चला रहा हूं, झूठ पकड़ा जाएगा. हां, तो क्या हुआ मेट्रो में भी कह सकता है. मगर बाऊजी सुन लेंगे कि झूठ बोल रहा है. मेट्रो की घोषणा जो पीछे चलती रहती है. सुनने दो. उन्हें भी पता चलना चाहिए कि बिना जरूरत फोन करके वो बेटे को झूठ बोलने के लिए मजबूर कर रहे हैं. इस तरह उनका फोन आना भी बंद हो जायेगा. कहानी में भी कोई रोक-टोक नहीं रहेगी.

मेट्रो में हैरोइन को मिलवा दें? मिलवा सकते हैं मगर फिर उसे मेट्रो के आगे कूद कर ही आत्महत्या करना पड़ जाएगी. क्यों? किया हीरो उससे शादी से इनकार कर देगा? करना पड़ेगा. बाऊजी राजी नहीं होंगे न. बाऊजी की वो सुनता कहां है? सुनना पड़ेगा. बाऊजी ने उसकी जहां शादी तय की है वो उसे दिल्ली में मकान दे रहे हैं. उसकी नौकरी भी सरकारी करवा देंगे. यूनिवर्सिटी में पढ़ा सकता है वो. कैसे? लड़की के बाप प्रोफेसर है. उन्हें ऐसा ही लड़का चाहिए था जो उनकी बेटी के नाज़-नखरे उठा सके. इतनी आसानी से नौकरी मिल जाएगी? अरे प्रोफेसर साहब टीचरों की यूनियन के लीडर हैं. वो जैसा चाहेंगे सेलेक्शन कमेटी वैसा करेगी. फिर मेट्रो वाली लड़की का क्या करेंगे? अरे वो घूमी फिरी है न उस के साथ. मुफ़्त में तो नहीं घूमी थी. उसने उस के ऊपर हज़ारों लुटाए थे. क्रेडिट कार्ड से उधार ले-ले कर. अगर उधार ले-ले कर वो उस की फरमाइशें नहीं पूरी कर रहा होता तो उस की ऐसी हालत ही क्यों होती कि आज कर्ज उतारने के लिए उसे ऐसी लड़की से शादी के लिए राजी होना पड़ रहा है जिसे वो चाहता तक नहीं. क्या मेट्रो वाली लड़की के मां-बाप उसे ये सब नहीं दे सकते? अगर वो इस लायक होते तब क्या बात थी. ये लड़की तो खुद शहर में आई ही इसलिए है कि अपने मां-बाप और भाई-बहनों की जिंदगी चला सके.

ओह..! देखो अब ओह कह कर इस कहानी को फिर पुरानी डगर पर मत ले जाओ. ये बताओ क्या तय किया? लड़की मेट्रो के आगे कूदेगी या ज़हर खाएगी?

नहीं..वो ये सब कुछ नहीं करेगी..! अच्छा, तो फिर वो हीरो की जिंदगी से जाएगी कैसे? उसे कहां भेजें? पुलिस स्टेशन. क्या? हां वहां जा कर वो तुम्हारे खिलाफ केस दर्ज कराएगी कि तुम अपनी कहानी के द्वारा बेटियों को आत्महत्या पर उकसा रहे हो. तुमने ही हीरो के दाम बढ़ाए हैं. तुम्हारी वजह से ही दोनों की शादी नहीं हो पा रही है. कमाल करते हो. मैं इसमें अपराधी कैसे हो जाऊंगा? तुम हो उस के अपराधी. तुम्हारी ये कहानी चीख-चीख कर कह रही है कि तुम बेवफा का साथ दे रहे हो. ये मैंने लिखा है, तुम यह कैसे साबित करोगे? क्योंकि ये तुम्हारे कम्पयूटर में है. मगर उसे मैंने ही लिखा है इस का क्या सबूत है? और सुनो मेरी कहानी कभी इस तरह की नहीं होती. मैंने हमेशा दबी-कुचली जनता के हक़ के लिए लिखा है. मेरी पुरानी कहानियां उठा कर कोई भी बता देगा कि ये आलेख मेरा नहीं है. इसमें बाज़ार झलकता है. औरत के साथ ज़ुलम है. ये मैंने नहीं लिखा, समझे. ये नए जमाने के रंग में रंगे किसी नए सियार ने लिखा होगा. मैंने तो न जाने कब से कहानी लिखना ही छोड़ दिया है. इस बर्बाद कहानी पर मेरे नाम का ठप्पा मत लगाओ.

तुम तो डर गए. इतनी-सी बात से डर गए. ये किरदार तो सब ख़्याली हैं. पुलिस स्टेशन कहां जा सकते हैं. तुम को पहले इतना डरा हुआ नहीं देखा. हा हा हा, नहीं-नहीं डर नहीं है. बस मुद्दत के बाद कहानी लिख रहा हूं तो इसलिए मामूली-सा संवेदनशील हो रहा हूं. कहानीकार का संवेदनशील होना तो अच्छी बात है. हां, मगर मैं खुद को लेकर संवेदनशील हूं. इसलिए हल्की-सी ठोकर भी बेचैन कर देती है. चलो कोई बात नहीं. कहानी आगे बढ़ाएं? रहने दो, मुझे लगता है कहानी ऊपर ही खत्म हो गई थी. कहां? कई जगह कहानी खत्म हो कर दुबारा शुरू हुई है. कहीं भी खत्म कर देते हैं. ये तो कम्पयूटर है कहीं से भी सेलेक्ट करके डिलीट मार दो. नहीं.. नहीं ऐसा मत करो, कहानी को आगे बढ़ाओ. कैसे? उसकी शादी मत होने दो. ऐसा करते हैं कि प्रोफेसर साहब को अपनी बेटी के बारे में ये नहीं मालूम था कि उसका एक बड़े नेता के बेटे के साथ इश्क़ चल रहा है. ये लड़का स्कूल से ही उसके साथ पढ़ता था. जब प्रोफेसर साहब ने शादी की बात की तब लड़की ने ये बात बताई. प्रोफेसर साहब को ये रिश्ता ज़्यादा काम का लगा. इस तरह वो अपना वाइस चांसलर बनने का लक्ष्य आसानी से पा सकेंगे. इसलिए बच्ची की खुशी के लिए प्रोफेसर साहब ने ये मेट्रो वाला मुआमला खत्म कर दिया.

अरे वाह कहानी फिर अपने पैरों पर खड़ी हो गई है. अब क्या करें? कुछ नहीं मेट्रो वाला प्रेम चलने देते हैं. नहीं.. नहीं.. अब पाठक को इस में मज़ा नहीं आएगा. इस लड़की का दिल टूटने देते हैं. तुम्हारी बात सही है. लड़की को आत्महत्या नहीं करवाते हैं. उसे इस दुख के साथ जीने देते हैं. लेकिन लड़के का क्या करें? उसे भी दुख के साथ जीने देते हैं. मगर कहानी का अंत तो होना चाहीए? क्या ये अंत अच्छा नहीं है. उदेश्य? कहानी का उदेश्य क्या है? कहानी का उदेश्य सिर्फ ये है कि मैं अब दुबारा कहानी लिखने लगा हूं. कलम से नहीं कम्पयूटर से. यही उदेश्य बड़ा है.

तुम्हारे लिए तुम्हारा होना ही महत्वपूर्ण है. तुम्हारे किरदार, तुम्हारी कहानी, उस का प्लॉट, संवाद, उतार-चढ़ाव कुछ महत्वपूर्ण नहीं हैं. क्या हो गया है तुम्हारी सोच को? तुम समाज के लिए लिखते थे.. आज नई तकनीक आ जाने के बाद तुम सिर्फ अपने लिए लिखना चाहते हो. हां..! बड़ी बात यही है कि जिन्दगी लिख रहा हूं मैं. कूड़ा-करकट जो भी सही, लिख तो रहा हूं न मैं. और सुनो साहित्यक पत्रिकाओं में कहानियां छपने के बाद ऐसी प्रतिक्रिया नहीं मिलतीं जैसे लाइक और कमेंट्स एक लाइन लिखने पर फेसबुक पर मिल जाते हैं. अब किस के पास वक़्त है लंबी-लंबी कहानियां पढ़ने का, चरित्रों से उलझने का? सब तेज़ रफ़्तार प्रगति के घोड़ों पर सवार हैं. इसलिए ऐसा करो इस कहानी को भी छोटा कर दो. इसे फेसबुकचा कहानी कर दो.. हां फेसबुकचा कर दो..!

बहुत दिनों बाद उसने कहानी लिखी. कहानी मेट्रो से शुरू होकर मेट्रो में ही खत्म हो गई. प्लीज माईंड दा गैप..! खाली जगह का ध्यान रखें. ए मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया.

इसे फेसबुक पर डाल रहा हूं. ये देखो पांच मिनट में ही धड़ाधड़ लाइक और कमेंट्स पर कमेंट्स. ये है मेरे कामयाब रचनाकार होने का सबूत..!
सुनिए कब तक फेसबुक पर बैठे रहेंगे. फोन की घंटी बज रही है.
हेलो. कौन? क्या? इस बार भी अकादमी ने किसी और को अवार्ड दे दिया है. कब तक मेरा हक़ मारेंगे. अभी फेसबुक पर अकादमी को गालियां देता हूं. नंगा करता हूं इन सबको. सब बिके हुए हैं. क्या जानें कोई रचना कृति क्या होता है. कैसे-कैसे दर्द से गुज़रना पड़ता है.
“अरे कहां गए? अरे वापिस आओ. सुनो ये कहानी पूरी करनी ही पड़ेगी..!”

Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature

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